Monday, 28 January 2019

पी सी ओ और ईबुक

पी सी ओ मजबूरी में खोला था, वजह यही थी कि कोई ऐसा काम करो जिसमें हेरा-फ़ेरी, धोखाधड़ी या बेईमानी न हो। लोगों कहते दाएं, बाएं, सामने, सब तरफ़ पहले ही पी सी ओ हैं, यहां चल जाएगा! मैं कहता-‘देखते हैं’।
खुला तो शुरु से ही एक रुपए पचीस पैसे में लोकल कॉल कराने लगा, पूरे पांच मिनट की कॉल। दूसरे लोग एक-दो मिनट की कॉल के भी दो रुपए ले लेते थे। एस टी डी के लिए कुछ ‘तजुर्बेकारों’ ने ‘सुझाव’ दिए कि मशीन के मीटर में सेटिंग कर-करा लो, सभी करते हैं। मैंने कहा मेरे बस की बात नहीं।

केबिन शुरु से ही बनवा लिया था, छोटा-सा पंखा भी लगवा दिया था। लोगों से इज़्ज़त से बात करता, फ़ोन बिज़ी होने पर बैठने के लिए कहता, कुछ भी खा रहा होता तो सबको ऑफ़र करता। जनता फ़्लैट्स् में कम आय वर्ग के लोगों को ख़ूब रास आया। आस-पास के लगभग सभी पड़ोसियों ने जानकारों-रिश्तेदारों को मेरे पीसीओ का नंबर दे दिया था। सब्ज़ीवालों, ठेलेवालों ने भी दूर गांव में यहां का नंबर दे रखा था। दिल्ली में किराए पर रह रहे छात्रों ने भी नंबर दे रखा था। लोगों के फ़ोन आने पर सबको किसी न किसी तरह बुलवाता या दुकान छोड़कर ख़ुद बुलाने जाता, लोगों के घर से आए मैसेज उनके आने पर उन्हें देता। स्कूली बच्चों को ठंडा पानी पिलाता।

सुबह पांच बजे से लोग आना शुरु होते, रात को बारह बजे तक आते रहते। कई बार लोगों को ज़बरदस्ती, आग्रहपूर्वक निकालना पड़ता कि भई, मुझे सोना भी है।

इससे भी ज़्यादा मेहनत ईबुक में करनी पड़ रही है। एक तो ऐसे कामों में हाथ डाल देता हूं फिर अपने ढंग से करना और लोगों को सस्ते में उपलब्ध कराना। टाइप करने से कवर बनाने तक सब अपने-आप करता हूं। नया तर्क, नये विचार, लोगों को समझ में आनेवाली भाषा। आसान तो बिलकुल भी नहीं है। याद है कि एक चैनल ने तीन-चार साल पहले ही कार्यक्रम किए कि ईबुक अमेरिका तक में फ़्लॉप हो गई है और....। मैंने अंततः ‘ईबुक के फ़ायदे’ के नाम से एक पुस्तिका-जैसी भी लिखी। एक तरफ़ अपने तमाम विचारों के साथ एक अकेला आदमी, दूसरी तरफ़ तरह-तरह के चैनल्स्, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया, विज्ञापन जगत, फ़िल्म जगत.....

लेकिन मेहनत और इरादें हों तो रास्ते भी निकल आते हैं और लोग भी समझने लगते हैं... 

No comments:

Post a Comment