Tuesday, 14 February 2023

पी सी ओ और प्रेम

पीसीओ प्रेम के लिए दिन-रात खुला रहता था, किसी वैलेंटाइन डे की दरकार ही नहीं थी.

एक दिन एक 17-18 साल के लड़के ने कहा कि क्या मैं फ़लां लड़की से आपके पीसीओ पर बात कर लिया करुं! मुझे पता लगा कि लड़की भी वहीं आकर फ़ोन करती थी और मैं उसे जानता था.

इसमें मेरा नुकसान था अगर वो बिना फ़ोन के बात करते. वैसे भी मैं सिर्फ़ एक रुपया लेता था और पूरे पांच मिनट की कॉल देता था. उसमें भी पंखा और केबिन शामिल थे जबकि अन्य दुकानदार 2-3 रुपए लेते और 2-3 मिनट का समय रखते. पर मेरे इसी व्यवहार की वजह से सुबह 5 बजे से रात 1 बजे तक पीसीओ खचाखच भरा रहता. मैं कोई दुकानदार तो था नहीं बस मजबूरी में पीसीओ खोलकर बैठ गया था. मुझे ग़लतफ़हमी भी थी कि शायद इस धंधे में बेईमानी नहीं होती होगी.

पर मैंने कहा कि बाहर बरामदे में बात कर लिया करो मगर कोई ऐसी-वैसी हरक़त मत करना जिससे मेरे लिए परेशानी खड़ी हो. और वे बात करने लगे.

इस तरह के कई छोटे-मोटे सिरदर्द मैं अकसर ले लेता था.

मेरे बारे में तरह-तरह के अनुमान थे. मेरा घर भी पीछे दुकान में ही था.

मुझे याद है एक बार एक लड़के ने कहा था-‘यहीं पर बिस्तर डाल रखा है, जो भी पसंद आती है ले जाते हो.’ 

बचपन से ही मुझे अनेक विरोधाभासी इल्ज़ामों की आदत थी.

लोकप्रिय मैं बहुत हो गया था. लड़के-लड़कियां, बुज़ुर्ग-जवान, हिंदू-मुस्लिम, पंजाबी-बंगाली सभी बड़े अधिकार भाव से मेरे पास आते. कई बार लोग कहते कि हमारे पास बस दो ही रुपए हैं, दो कॉल हो जाएं तो बता देना. मैं उनका पूरा ध्यान रखता. वे कभी कहते कि कॉल तो लग गई पर बात नहीं हुई तो मैं पैसे भी छोड़ देता. दिल्ली के बाहर से आकर दिलशाद गार्डन में रह रहे कई लड़कों को मैं याद करके उनके घरों से आए मैसेज देता. उनके गांवों से फ़ोन आनेपर पर रेहड़ी-ठेलीवालों को बुला-बुलाकर लाता.

लोकप्रिय तो मैं इतना हो गया था कि कई बार लगता था कि इस इलाक़े से मैं कोई छोटा-मोटा चुनाव लड़ूं तो जीत जाऊंगा. कई लोग मुझमें संभावित रिश्ता भी तलाशते नज़र आते. एक दफ़ा एक महिला जो अकसर अपनी लड़कियों के साथ आतीं और पूरा परिवार मुझे भी बहुत भला लगता, ने मुझसे पंजाबी में पूछा कि क्या आप मुल्तानी हो! जैसी मेरी आदत थी और स्वभाव था, मैंने कहा कि मैं तो बस इसान हूं. एक दिन घर जाकर मैंने माताजी से पूछा कि मुल्तानी कौन होते हैं तो माताजी ने कहा कि बड़े लड़ाके (झगड़ालू) होते हैं. वैसे भी यह बताने का तो उस वक्त माहौल ही नहीं था कि शादी-वादी में मेरी कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं है, मैं तो ओशो जैसे लोगों से प्रभावित हूं. धर्म-जाति-संप्रदाय-ऊंच-नीच के बारे मे मैं बचपन से ही कुछ ख़ास जानता भी नहीं था और जानना चाहता भी नहीं था. बस ईमानदार और स्पष्टवादी लोग मुझे भले लगने लगते थे.

कई तरह के अभावों में रहकर भी मैं आकर्षक और मासूम दिखता. सही बात यह है कि मेरा चेहरा लड़कियों से भी कहीं ज़्यादा मासूम था क्योंकि स्वभाव में उनसे भी ज़्यादा भोलापन था. कमउम्र या कमसिन दिखने की एक वजह यह भी थी कि कभी कुपोषित होने की हद तक कमज़ोर और बीमार रहता था. लेकिन कई लोग समझते थे कि लाड-प्यार और सुविधाओं में पला किसी रईस ख़ानदान का लड़का है जोकि सिरे से झूठ था. मेरे संकोची और रिज़र्व स्वभाव की वजह से लड़कियों की ख़ुद अपने दिल की बात कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी पर वो यदा-कदा दूसरों से कहलवाती रहतीं थीं. जो लड़के अपनी गर्लफ्रेंड की छोटी बहिन की इच्छा मुझे बताते, वही मुझसे दस साल छोटे होते, बहिने और भी छोटी होती होंगी. कई तो मुझे पता भी था कि कौन हैं.

कई बार लड़कियां निवेदन करतीं कि आप फ़ोन पर फ़लां लड़के को बुला देना, उसके घरवाले फ़ोन उठाएंगे तो आप कह देना कि मैं उसका दोस्त बोल रहा हूं, उससे ज़रा बात कराना. मैं लड़कियों को साफ़ मना कर देता कि मुझसे झूठ और धोखाधड़ी जैसे काम नहीं होते, कोई और करे तो करवा लो. एक लड़की तो मैंने देखा कि केबिन में जाकर खुद ही मोटी आवाज़ निकालकर लड़के को बुलवाने लगी. एक लड़की को मैंने अपने बारे में यह कहते भी सुना कि ‘ये तो सड़ा ही रहता है.’

इधर मुझे कई बार धमकी भरे फ़ोन आते कि आपके पीसीओ से लड़कियां ऐसी-वैसी कॉल करतीं हैं. मैं देखता कि लोगों को लड़कियों से ही ज़्यादा शिकायत थी. लड़के उनकी बला से कैसी भी कॉल करें. कई बार मैं सोचता कि सभ्यता और संस्कृति की चिंता भी अजीब है, आखिर लड़के भी तो लड़कियों को ही कॉल करते हैं तो लड़कियां ख़ुद करलें तो क्या दिक्कत है!

इस बीच मेरी अपनी हालत यह थी कि ज़िंदगी-भर की समस्याएं लेकर जब करीबन 30 साल की आयु में मैं मनोचिकित्सक से मिला और तक़रीबन एक घंटे में मैंने अपने सारे जीवन की समस्याओं को बयान किया तो सुनकर उसने पहली जो बात कही वो यह थी कि आप अब मुझसे मिले हैं, आपकी ज़िंदगी का गोल्डन पीरियड तो निकल ही गया.

मगर अभी तो मुझपर कई ऐसी बातों के लिए इल्ज़ाम लगने वाक़ी थे असल में जिन्हें न कर पाने की वजह से मैंने अपनी लगभग सारी ज़िंदगी ख़राब कर दी थी.

-संजय ग्रोवर

Monday, 28 January 2019

पी सी ओ और ईबुक

पी सी ओ मजबूरी में खोला था, वजह यही थी कि कोई ऐसा काम करो जिसमें हेरा-फ़ेरी, धोखाधड़ी या बेईमानी न हो। लोगों कहते दाएं, बाएं, सामने, सब तरफ़ पहले ही पी सी ओ हैं, यहां चल जाएगा! मैं कहता-‘देखते हैं’।
खुला तो शुरु से ही एक रुपए पचीस पैसे में लोकल कॉल कराने लगा, पूरे पांच मिनट की कॉल। दूसरे लोग एक-दो मिनट की कॉल के भी दो रुपए ले लेते थे। एस टी डी के लिए कुछ ‘तजुर्बेकारों’ ने ‘सुझाव’ दिए कि मशीन के मीटर में सेटिंग कर-करा लो, सभी करते हैं। मैंने कहा मेरे बस की बात नहीं।

केबिन शुरु से ही बनवा लिया था, छोटा-सा पंखा भी लगवा दिया था। लोगों से इज़्ज़त से बात करता, फ़ोन बिज़ी होने पर बैठने के लिए कहता, कुछ भी खा रहा होता तो सबको ऑफ़र करता। जनता फ़्लैट्स् में कम आय वर्ग के लोगों को ख़ूब रास आया। आस-पास के लगभग सभी पड़ोसियों ने जानकारों-रिश्तेदारों को मेरे पीसीओ का नंबर दे दिया था। सब्ज़ीवालों, ठेलेवालों ने भी दूर गांव में यहां का नंबर दे रखा था। दिल्ली में किराए पर रह रहे छात्रों ने भी नंबर दे रखा था। लोगों के फ़ोन आने पर सबको किसी न किसी तरह बुलवाता या दुकान छोड़कर ख़ुद बुलाने जाता, लोगों के घर से आए मैसेज उनके आने पर उन्हें देता। स्कूली बच्चों को ठंडा पानी पिलाता।

सुबह पांच बजे से लोग आना शुरु होते, रात को बारह बजे तक आते रहते। कई बार लोगों को ज़बरदस्ती, आग्रहपूर्वक निकालना पड़ता कि भई, मुझे सोना भी है।

इससे भी ज़्यादा मेहनत ईबुक में करनी पड़ रही है। एक तो ऐसे कामों में हाथ डाल देता हूं फिर अपने ढंग से करना और लोगों को सस्ते में उपलब्ध कराना। टाइप करने से कवर बनाने तक सब अपने-आप करता हूं। नया तर्क, नये विचार, लोगों को समझ में आनेवाली भाषा। आसान तो बिलकुल भी नहीं है। याद है कि एक चैनल ने तीन-चार साल पहले ही कार्यक्रम किए कि ईबुक अमेरिका तक में फ़्लॉप हो गई है और....। मैंने अंततः ‘ईबुक के फ़ायदे’ के नाम से एक पुस्तिका-जैसी भी लिखी। एक तरफ़ अपने तमाम विचारों के साथ एक अकेला आदमी, दूसरी तरफ़ तरह-तरह के चैनल्स्, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया, विज्ञापन जगत, फ़िल्म जगत.....

लेकिन मेहनत और इरादें हों तो रास्ते भी निकल आते हैं और लोग भी समझने लगते हैं...