Photo by Sanjay Grover |
पीसीओ अभी खुला नहीं था, तैयारी चल रही थी। दो कमरे का छोटा-सा जनता फ़्लैट लिया था जिसमें आगेवाले अपेक्षाकृत बड़े कमरे का लगभग एक-तिहाई हिस्सा पीसीओ के लिए छोड़ा था और उसके पीछे के पार्टीशन के पीछे एक डबलबैड लगभग फंसा-फंसा रखा था। उस वक़्त शायद मैं उसीपर लेटा था कि दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई। मेरा दिल थोड़ा धड़का कि हो न हो, वही होंगे। एक दिन पहले किसीने बताया भी था कि आए थे।
मैंने सोचा कि थोड़ी देर खटखटाएंगे फिर यह सोचकर कि यहां कोई नहीं हैं, चले जाएंगे। मगर उन्होंने खिड़की के बिलकुल धुंधले कांच में से न जाने कैसे देख लिया। फिर दो-चार आवाज़ें मारीं, मैं नहीं हिला तो कोई एक चिल्लाया, ‘‘खोलता है कि सीसा तोड़ूं ?’
मैं थोड़ा डर भी गया, पैसे बचाना चाह रहा था पर लग रहा था कि अब तो देने ही पड़ेंगे। मैंने आराम से दरवाज़ा खोला, वे तीन-चार थे। उस समय शायद उस कमरे में डबल बैड के अलावा और कोई बैठने की जगह नहीं थी। नर्म अंदाज़ में मैंने उसी बैड की तरफ़ इशारा किया, कहा,-‘बैठो’। शायद वे थोड़ा हैरान हुए, बैठ गए।
कुछ छुट-पुट बातें हुईं, फिर मैंने कहा कि इतने पैसे देने की तो मेरी हैसियत ही नहीं है। वे शायद 1500 रु. मांग रहे थे। फिर पता नहीं क्या बात हुई कि उनमें से एक ने कहा कि:अरे तुम्हारा क्या, तुम तो राजा आदमी हो, हम तो निरबंसी (निर्वंशी) हैं......
‘कोई बात नहीं, हम भी निरबंसी हैं.......मैंने बड़ी सहजता से कहा....
उस घड़ी कमरे का वातावरण, मुझे लगा, एकदम बदल गया है और बहुत सुंदर और शांत हो गया है....
यह नहीं कि मैंने सिर्फ़ उनका दिल रखने के लिए कह दिया था, असल में बच्चा, वंश, मर्दानगी, पितृत्व, दुनियादारी आदि पर कभी मैंने इस दृष्टि से सोचा ही नहीं था जिस दृष्टि से संभवतः दूसरे लोग सोचते होंगे।
वे थोड़ा आत्मीय हो गए,‘मम्मी कहां है’, उन्होंने पूछा।
‘बाज़ार गई है‘, मैंने ख़ामख़्वाह ही झूठ बोल दिया, बचपन से उनके बारे में पढ़ी-सुनी बातों ने किसी आधारहीन डर को फिर मेरे भीतर सर उठाने का मौक़ा दे दिया था।
बहरहाल, कोई दो-ढाई सौ रुपए लेकर, एक अच्छे माहौल में वे विदा हुए।
वे, बच्चों से निस्वार्थ प्रेम का दावा करनेवाले, बेशर्म और क्रूर समाज के ही अपने जिस्म से काटकर रात के अंधेरे में या दिन की भीड़ में फेंक दिए गए बच्चे थे जो इस समाज के महान मां-बापों की प्रतिष्ठा, आन-बान-शान को माफ़िक नहीं आए थे और अब ढोलक के साथ बधाई गाकर गुज़ारा कर रहे थे। परोपकार का कैसा छद्म रचा था इस समाज ने कि जो बच्चे पैदा करने में असमर्थ होने की वजह से फेंके गए थे, उन्हींको दूसरों के बच्चे पैदा होने की ख़ुशी में बधाई देने के काम में लगा दिया गया था।
जब भी मैं इस घटना को याद करता हूं, मामूली-सी ही सही, ख़ुशी ज़रुर होती है।
-संजय ग्रोवर
17-06-2018